Tuesday, November 19, 2013

Painter J Swaminathan inaugurating my painting exhibition at Kala Parishad, Bhopal


सोन चिरैया











एक राजकुमारी थी 
जिसके घर 
तोतों के झुण्ड 
पहरा देते थे। 
जिसके महल में 
सोन चिरैया 
मोती चुगने आती थी। 
एक महल था 
जिसमें एक झील थी
और 
झील के किनारे 
हिरणों के झुण्ड थे 
जिनसे राजकुमारी
खेला करती थी। 
एक दिन 
एक बंजारा आया 
और तोतों के झुण्ड 
के बीच से 
राजकुमारी को 
अपनी मज़बूत बाँहों में 
उठाकर ले गया। 
बंजारे के साथ 
हवा में उड़ती उड़ती
राजकुमारी दूर ऊँचे पहाड़ 
पर जमी बर्फीली चट्टान 
तक पहुँच गयी। 
उस अजनबी बंजारे ने 
राजकुमारी को सफ़ेद बर्फ पर 
लिटाकर खूब चूमा 
और जादू से 
उसकी आँखें बदल दीं। 
अब वह
नीली आँखों वाली एक 
बंजारन है 
और बंजारे के साथ साथ 
जंगल जंगल
पर्वत पर्वत घूमा करती है। 
उनके पास कुछ भी नहीं है 
बस ढेर सारा प्यार है 
जिसमें धरती और आसमान 
डूबे रहते हैं। 
वे लोग 
साथ साथ सोते गाते 
और उड़ते रहते हैं 
हवा में 
कभी यहाँ कभी वहाँ। 
और पहरेदार तोते 
उनका कुछ भी 
बिगाड़ नहीं पाते। 
वहाँ की हवा से 
कभी कभी उनका 
झगड़ा होता है 
और वे साथ साथ 
अंधड़ को पीछे ढकेल देते हैं।
सोन चिरैया 
अब भी जंगल में 
उनके पास आती है 
अब वह मोती नहीं 
दाने चुनती है 
जिससे उसका पेट नहीं 
आत्मा तक भर जाती है। 
एक जंगल है चन्दन का 
जिसमें रहती है राजकुमारी अब 
बंजारन रानी बनकर
वहाँ के खुशबूदार ज़िंदा पौधों 
के साथ 
और 
महल के भीतर की 
सारी उदास चीज़ों को 
भूल चुकी है। 




14 फरवरी 1980,
भोपाल   



  

नदी























मुझे मत रोको 
इस नदी के अंत तक जाना है मुझे 
मुझे इसका साथ देना है 
दुर्गम घाटियों में , ठहरे हुए समतल पर ,
बहते हुए झरनों में। 

इसकी धारा का हर कण 
इसके ठंडे जल का सुखद स्पर्श ,
इसका वेग , सब कुछ 
आत्मसात करना है। 

मुझे प्यार है इस नदी से 
इसके साथ डूबने उतराने में 
मैं पुलकित होता हूँ
नदी एक जीवन है 
जिसे मैं तुम्हारा नाम देता हूँ 
और जिसमें मेरा नाम 
घुलता जा रहा है। 



2 नवंबर 1980 ,
भोपाल 

Saturday, November 16, 2013

माया नगरी











हो सकता है 
मिट्टी में ही 
छुपी हो खुशबू 
सारे फूलों की 
ऐसा भी हो सकता है 
कि आकाश ही 
अपने दुशाले में बाँध 
जीवन के सारे टुकड़े 
हमारे भीतर आकर 
फैल गया हो 
संभव है 
कि समुद्र ही उफनता हो 
ज्वार भाटे सा हमारे भीतर 
और बाहर 
अपनी निस्सीम अनंतता 
समेटे चुपचाप खड़ा हो 
या फिर 
कुहराए प्रकाश कण ही 
बना रहे हों यह अंधियारा
इस माया नगरी में 
सब कुछ सम्भव है 
असम्भव कुछ भी नहीं 
हो सकता है 
प्रेम भी सदियों पुरानी 
किसी पथराली चट्टान पर 
खुदा कोई नाम भर हो  
जिसकी लिपि अभी खोजी 
जानी है। 



3 जुलाई 2000,
भोपाल 

अनंत तक










वहाँ दूर तक 
रजनीगंधा के 
फूलों से पटी सफेद घाटियों में 
तुम 
खिलखिलाती हुई 
हवा सी 
लहराती रहती हो।

तुम्हारे खुले केशों से 
छन कर आती है 
सूरज की नन्ही 
सतरंगी किरणें 
और मेरी आँखों में 
विश्वास बनकर 
चमकने लगती हैं। 

मैं 
फैलता हूँ 
पृथ्वी को चारों ओर 
अपनी बाहों में लपेटे आकाश जैसा 
और 
एकाएक एक तेजस पुंज में 
बदल जाता हूँ 
तुम   
अपनी आत्मा तक 
सोख लेती हो 
तेज के कण कण 
और उसके बाद 
दिशाओं की अनंतता तक 
प्रकृति की दिव्य जीवन गंध सी 
व्याप्त हो जाती हो । 



8 फरवरी 1980,
भोपाल  

मेरे सपने

तुम्हारे कमरे तक 
दौड़ जाते हैं
मेरे सपने 
इनके 
क़दमों की आहट 
कोई नहीं सुन पाता 
शायद तुम भी नहीं। 

बाहर की 
तेज़ रोशनी में 
आँख गड़ाने के बाद भी 
कोई इन्हें देख नहीं पाता
और 
चुपके से ये तुम्हारे 
बहुत करीब पहुँच कर 
तुम्हें ताकने लगते हैं। 

इन सपनों ने देखा है 
छुपकर 
तुम्हारा सारी रात 
बड़ी बड़ी आँखें लिए जागना 
कमरे की दीवारों को 
घूरते हुए किसी अनजान बात पर 
खिलखिला कर हँस पड़ना 
और फिर 
शरमाकर तकिये में मुंह गड़ाकर सो जाना। 

मैंने कह दिया है सपनों को 
अब वे इस तरह आवारा घूमते हुए 
तुम्हारे पास तक नहीं जायेंगे 
और यहीं 
मेरे साथ तुम्हारे सपनों की बाहों में 
लिपटकर चुपचाप सो रहेंगे। 



शैलेन्द्र तिवारी 
6 फरवरी 1980 
भोपाल 

  

Tuesday, May 28, 2013

पहला पंछी






क्या देखी है तुमने कभी 
सूखे के दिनों में 
घोंसले तक बच्चों के लिए दाना लेकर 
पहुँचती एक प्रसन्न चिड़िया ?

देखा है क्या 
अनजान नदी के पार पड़े देवालय के 
किसी अपूजित देवता को आशीष 
देते हुए ?

क्या तुमने 
किसी बारूदीअपशकुन को 
फटते समय 
ज़ोर से अट्टहास करते 
सुना है ?

फिर किसलिए खोजते हो 
आसमान में 
होने और न होने का 
बेकार सा मतलब।

क्यों बनते हो 
बहस का हिस्सा 
अपने ठन्डे हांथों को जेबों में डाले 
प्रार्थनाओं की जुगाली से 
पेट भर लेने के बाद भी 
किस तरह खाली रह जाते हो?

बर्फ है बाहर 
और समा गया है 
शिराओं के भीतर तक 
कौन सा डर 
यह कैसा एहसास है
एक गहरे कुंए में डूब जाने जैसा 
बेचैनी से आकंठ भरा हुआ?

क्यों करवट बदलता है 
गर्भ के भीतर 
यह एक असुरक्षित 
क्षण 
क्या इसी जगह 
जन्म लेने वाला है 
सूरज 
क्या यहीं 
पंख फड़फड़ायेगा   
भोर को उड़ने वाला 
पहला पंछी?



10 सितम्बर 2004 


Monday, May 27, 2013

रथी



ऐसा लगा 
धवल रथ का वह रथी 
श्वेत वस्त्रों में 
इस निपट सुनसान मैदान 
से होकर अभी अभी गुज़रा हो।
२ 
कहीं कोई
आवाज़ नहीं 
निःशब्द 
उसके पैरों के 
कोई आधे अधूरे निशान भी 
नहीं हैं वहां।
३ 
वह इस तरह 
से आया 
और 
इस तरह से चला गया 
जैसे वह 
वहां आया ही नहीं था।
४ 
उसकी बस्ती की 
सीधी सपाट सड़क 
उसकी ऊंचाइयों तक 
जाकर ख़त्म हो जाती है 
उसके रिश्ते नाते 
उसके गाय बैल 
उसकी घंटियाँ 
और उसके पूँछ हिलाने वाले कुत्ते 
सबके सब
आश्चर्य करते हैं 
कि वह इस तरह से 
कैसे जा सकता है।
५ 
वहां भोर की 
सुगबुगाहट में 
कहीं कोई फूल 
खिलने को आतुर है 
वहां सांझ 
आखिरी किरण के 
जाने के पहले 
थरथरा कर बस 
पंखुरियाँ बिखेरने ही 
वाली है,
स्याह रात है 
घोर अमावस 
और 
न थकने वाले 
जादुई पाँव 
एक एक कदम 
जैसे एक जनम 
और 
एक अधूरी इच्छा।
६ 
रास्ता है कि 
दिन रात की 
जुगलबंदी में 
गाया जाने वाला 
अंतहीन राग 
जो कभी ख़त्म नहीं होता 
गूंजता है 
अनहद में आकाश।
७ 
उसे ही सुनता हूँ मैं 
उसे ही जानता हूँ मैं 
मुझे विश्वास है 
कि अभी हूँ मैं 
और 
वह जो बीत गया 
वह भी है यहीं 
और 
यहीं बना रहेगा 
ठीक वैसे ही 
जैसे वह यहाँ था ही नहीं।




21  मई 2005, भोपाल  
पापा को एक श्रद्धांजलि सुमन  

Thursday, May 23, 2013

CERAMIC ART CENTER AT BHARAT BHAWAN, BHOPAL




The grand master of Cinema AndreyTarkovsky has said that Time always settles like rust (saba) on the objects and the art objects exist as products of sculpting in time. The same is true for ceramic art. T.S. Eliot in his famous essay also talks about tradition, " Tradition is a matter of much wider significance. It cannot be inherited and if you want,you must obtain it by great labour."
Way back in February 1982 at Bhopal, the importance of curating a permanent collection of ceramic art was felt by the founder Director of Roopankar, late Shri J. Swaminathan, the renowned painter. He emphasized that urban and rural artists need not be segregated in the light of new technological advancement. The indigenous knowledge system which traditional artist use in their creativity and their vast experience which goes with them to be augmented with modern technology to explore the unlimited possibilities of clay medium itself.
Today the ceramic art center Roopankar at Bharat Bhawan, Bhopal is well known prestigious center and known as Bhopal school which provides openness to the artists to perfect their forms with simplicity, spontaneity, intended distortions and minimalism in unsturctured manner. It is fulfilling the dream of Shri J. Swaminathan who has written in its first catalogue "perceiving fingers" that " the notion of timelessness in art is and has to be accepted for how can we otherwise be able to respond to the art of the past? The past lives with us as other presences, it vanquishes time."  

Monday, April 15, 2013

अन्तश्चेतना





शब्द के परे निशब्द गूंजता है 
जैसे मेरे होने के पहले 
गर्भ में मां के 
मेरी आत्मा 
मेरे और मैं के बनने के 
बहुत पहले वो 
और उसका 
अनादि अखंड अनंत 
अछेद अभेद 
नाद गूंजता रहता है।

क्या है जो बजता है 
घंटियों के बीच से 
कौन है जो कौंध जाता है 
प्रकाश में और अंधकार के
घुप्प अँधेरे के भीतर से।

उसका एक छोर
मेरे प्राणों को छूता रहता है 
और दूसरा छोर सभी प्राणों को 
बांधे रखता है 
उसकी डोरी मज़बूत है 
कहीं कोई कमज़ोरी नहीं 
चाहे मैं छूट जाऊं 
किसी आकाश में 
चाहे मैं किसी राह पर 
भटक जाऊं इस अंतरिक्ष में 
चाहे मैं लोप हो जाऊं 
आँखों की पकड़ से।

वह मुझे बांधे रखता है 
खींच लाता है मुझे 
मेरे मैं की गहराइयों से भी 
उसका प्रेम ही तो है 
जकड़े हुए मेरा बदन और मेरी आत्मा 
उसकी पकड़ ढीली नहीं होती 
उसकी गर्मी में 
मेरा बदन और मैं दोनों पिघलते हैं 
बूँद बूँद पल पल।


- 15अप्रैल 2013 
     काठमांडू   

शैलेन्द्र तिवारी  

Thursday, April 11, 2013

गुज़रता साल



खिड़की के पार है -
गुलमोहर 
और 
उसके नीचे मुस्कुराती खड़ी हो तुम 
तुम्हारा हाथ थामे खड़ी है 
गुलाबी गालों वाली हमारी नन्ही सी गुलथुल बिटिया 

खिड़की के पार है -
गुज़रता हुआ साल 
अपने लम्बे हाथ पैंट की जेबों में डाले 
सहमा सा वापस जा रहा है!
बाहर आसमान में -
पर फैलाये घूम रहा है रोशनी का एक झुण्ड!

मैं 
दरवाज़ा खोलता हूँ,
शोर के बीच से बाहर निकलकर 
तुम्हारे गुलाबी लिबास और बिटिया की नीली फ्रॉक 
के बीच तक चला आता हूँ 
और 
हरियाला रास्ता हमारे पावों के नीचे से निकलकर 
दूर बगीचे के छोर की तरफ आगे को
चल पड़ता है।


-15अप्रैल 1981 


शैलेन्द्र तिवारी  

Saturday, April 6, 2013

एक पल







१ 
शरमाकर चुप रह जाने वाली 
ऐसी कितनी बातें हैं 
जिनको हम तुम 
बोलें ना पर 
छू सकते हैं, फूलों की पंखुड़ियों जैसे।
ऐसी 
कितनी ही खुशबू हैं 
जिन्हें सहमकर 
आँख चुराकर 
हम साँसों में भर सकते हैं।
कितने प्यारे उड़नखटोले सपनों के हैं 
जहाँ बैठ हम उड़ सकते हैं 
ऊंचे ऊंचे आसमान में 
और 
प्यार में हँसते गाते 
खुले खुले मौसम के जैसे 
पल पल गीत सुना सकते हैं।
२ 
इतने तो अनजान नहीं हो 
कि 
तुम्हें पता भी ना हो 
कि जब मौसम बदलता है 
तो आदमी ही नहीं 
हवा 
पेड़ 
पौधों और पंखियों तक की 
आदतें बदल जाती हैं।
अमर बेल
किसी विशाल वृक्ष के
कन्धों तक चढ़कर 
अपनी पत्तियों में 
हज़ार हज़ार आँखें लिए 
टुकुर टुकुर ताकने लगती है।
चकवा नदी के किनारे 
किसी अनाम राग में 
ज़ोरों से चिल्लाता है।
हंसों के झुण्ड अपनी 
गर्दन शान में तिरछी 
किये झील के किनारे 
खड़े कोई राह तकते हैं।
जंगल में 
मोर नाचता है पर फैलाकर 
हवा बंसवटों को फूँक फूँक कर 
बंसी जैसा बजाती है।
फिर भी 
भला लगता है 
कि तुम इतनी अनजान बनो 
ताकि सारे अर्थ 
फिर से समझने / समझाने पड़ें 
और इस तरह हम 
समय को खोजें, फिर एक बार 
बच्चों की आँखों जैसे भोलेपन से।


3 फरवरी 1980 

शैलेन्द्र तिवारी 

शब्दहीन स्मृतियाँ






आप के इंतज़ार की 
एक छोटी सी उदासी 
मेरी आँखों में चमकने लगती है।
धुंधला जाते हैं 
आसमान 
मौसम 
और सामने वाली खूबसूरत चीज़ें,
किसी गहराई से 
एक वीरान राग सा 
बजता है 
जिसकी दिशा का 
मैं 
कोई आभास नहीं पाता।

केवल शब्दहीन स्मृतियाँ 
तुम्हारी गंध का 
साथ देती रहीं,
उस 
अजनबी रात में 
वहाँ 
देर तक बरसात होती रही 
हालाँकि
मौसम बाहर सूखा था 
और 
इस तरह का एक 
अंधड़ झेलने के बाद 
मैंने जाना कि 
साथ निभाना मुश्किल काम है।


2 फरवरी 1980 


शैलेन्द्र तिवारी 

Friday, April 5, 2013

तुम्हारी खुशबू


१ 
रात भर लिपटी रही खुशबू 
तुम्हारी चन्दन बाँहों की
और मेरा सीना महकता रहा।
दिन भर रोशनी चुभती रही आँखों में 
और मैं 
तुम्हारे रेशमी बालों में सर गड़ाकर  
सोने का बहाना ढूँढता रहा।
२ 
समुद्र के बाँध जैसा लहरों से 
टकराता है बदन 
इन लहरों ने मेरा रोम रोम डुबो लिया है 
और अब तुम्हें भी डुबो लेना चाहती हैं।
पुरानी कमज़ोर दीवार सा 
टूट गया है 
अजनबीपन का पुल।
यह अमृतजल एक ठंडी ताज़गी से 
अब हमें छूता है 
हम अभी और डूबेंगे 
इस समुद्र की नीली गहराई में 
अपनी आत्माओं के गल जाने तक।
३ 
एक बियाबान था जो अचानक 
बदल गया है 
अब इसमें ढेर सारे परिचित कोने हैं,
धूप के नन्हे नन्हे टुकड़े हैं 
जिन्हें गोदी में भरा जा सकता है।
खिलखिलाती हुई शाम है जिसको 
बाहों में भरकर प्यार से दुलराया 
जा सकता है 
और 
मीलों तक फैले खूबसूरत फूलों के 
झुण्ड हैं 
जिन्हें 
जी भरकर 
चूमा जा सकता है।



1 फरवरी 1980 



शैलेन्द्र तिवारी 

आँख नम न किया करो



यह शहर है 
अनजान ख़ामोशी का
यहाँ आँख नम 
न किया करो!
बस हँसा करो
और दुआ करो 
कि ये धूप हमसे 
जुदा न हो!
२ 
न तो हम यहाँ 
न तो तुम वहाँ 
कभी ढूंढें किसी 
उदास पल को 
न भूलें अपनी गर्मियां 
न छिपाएं अपनी उजास को!
३ 
बड़े जतन से
हमें खोजती 
सर्द हवाएं 
सुबह शाम 
बड़े प्यार से 
हमें ढूंढते 
कई दोस्त 
जो हैं गुमनाम!
४ 
हमें अपनी तरह से 
मुस्कुरा के बुलाते हैं 
ये कांटे और ये फूल भी लेके हमारा नाम 
हमारे पास तक चले आते हैं !
५ 
जो किसी पल हमारे दरमियाँ 
यदि कोई दरार आ गिरे 
यदि बहक के कोई कदम कभी 
हमारे बीच लड़खड़ा पड़े 
तुम संभलना
न सहमना 
तुम्हारे पीछे ही खड़ा हूँ मैं 
तुम्हारे हर कदम को सहेजता 
चट्टान सा अड़ा हूँ मैं !
६ 
जो अँधेरे आएं कहीं कभी 
तुम्हारे पास किसी परछाई के भी 
उन्हें लेने न दूंगा कोई जगह 
तुम्हारे साथ साथ चल रहा 
तुम्हारे भीतर की रोशनी में घुला मैं 
रोशनी का वजूद हूँ 
हर पल यहींमौजूद हूँ !

यह शहर है 
अनजान ख़ामोशी का
यहाँ आँख नम न किया करो।

4 अप्रैल 2013 
काठमांडू 


शैलेन्द्र तिवारी   
  
    

Tuesday, April 2, 2013

हमारे बीच



--- उन थोड़े से फूलों के लिए 
    जिनकी महक 
    अभी 
    बाकी है--- हमारे बीच!

--- उस नन्ही बिटिया के लिए 
     जिसके सपनों में
     किस्से कहानियों की तरह 
     ख़त्म हुए हम तुम 
     हर बार पुनर्जन्म लेते हैं!

--- उस गर्व के लिए जो,
    हमारी अलग अलग अस्मिता 
    अपने दोनों हाथों में थामे 
    तनी हुई गर्दन के साथ
    खड़ा रहता है-- हमारे बीच!

--- हमें लौटना ही होगा!
    भीतर अंधेरों को पार कर 
    बहने वाले अमृतजल के 
    चिरस्थाई सोते के पास 
    जहाँ सारी विषमताएं 
    गल रही हैं, धीरे धीरे।


3 जुलाई 1985 

शैलेन्द्र तिवारी 

Sunday, March 31, 2013

मेरा मैं तेरा तू



यह मेरा मैं ही तो है 
जो मुझे तेरे तू से अलग करता है 
वरना 
आँख मेरी भी देखती है 
कान मेरे भी सुनते हैं 
और त्वचा 
वह तो तुम जानते हो तुम्हें भी गुदगुदी होती है 
फिर क्यों बार बार 
हमारे बीच मैं और तुम आकर 
खड़े हो जाते हैं सिपहसालारों की भांति 
और हमें अपने अपने कटघरों में 
कैद कर देते हैं।
फिर क्यों बार बार 
मुझे और तुम्हें रूठना पड़ता है 
मनाने के इंतज़ार में कसकना पड़ता है 
फिर क्यों मेरी त्वचा चीत्कार करती है 
तुम्हारी त्वचा के लिए 
फिर क्यों मेरी साँसें तुम्हारी नासिका से 
गुज़रने को बेताब हवा जैसी 
बहकती रहती है 
फिर क्यों मेरा दिल धड़कता है 
मेरे सीने में तुम्हारी छातियों के बाहर?

यह मेरा मैं ही तो है 
जिसकी माटी से मैं बना हूँ 
और पल पल गलने का प्रयत्न करता है 
बूँद बूँद रिसने का इंतज़ार करता है 
घड़े के व्योम में 
समा जाने तक।




15 जनवरी 2013
शैलेन्द्र तिवारी 

Friday, March 29, 2013

मैं तुम्हें ये सब देता हूँ


       


मैं ये सब तुम्हें देता हूँ --
ये फूलों वाले रूमाल 
ये खूबसूरत रंगों वाले 
ढेर सारे गुलाब 
और मेरी अलमारी भर किताबें।

मेरी मोटे शीशों वाली ऐनक 
मेरी आँखों की उदास झील 
मेरा सख्त चेहरा 
मेरा हवाओं जैसा बेचैन 
दौड़ने वाला दिल 
मेरा परेशान दिमाग 
और मेरी आसपास तक फैली 
बाहें भी मैं तुम्हें देता हूँ।

धरती को इस छोर से उस छोर 
तक नाप सकने वाली मेरी 
मज़बूत टांगें 
दूर तक दिखाई देने वाला 
मेरे अजनबीपन का जंगल 
मेरे अकेले कमरे की 
खिड़की के नीचे वाली 
रजनीगंधा की छोटी सी क्यारी 
डायरी भर मेरी अधूरी कवितायेँ 
मेरे पुराने कोट की 
मर्दानी गंध और मेरी 
ऊलजलूल रंगों वाली 
पेंटिंग्स।

ये सब भी मैं तुम्हें देता हूँ 
और बदले में 
तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही 
मैं तुम्हारा हाथ चूम लूँगा 
क्योंकि 
तुम्हारे हरदम चुप रहने के बावजूद भी 
मैं जानता हूँ कि तुम मुझे 
प्यार करती हो।


-- १५ फरवरी १९८० 

शैलेन्द्र तिवारी  

क्या खोया क्या पाया



हमने खोजे 
इस जंगल में 
फूल और 
पत्तों के गहने 
डाली डाली 
खोजी कोयल।
सूरज आग और
धरती को
खूब रिझाया 
बर्फीली चोटी 
से लेकर 
सागर की गहराई तक 
हम दौड़े आये।
सपनों के संग 
उड़ते उड़ते 
थके नहीं हम 
और न टूटे,
ऋतु के पंखों को 
आगे पीछे देखा हमने।
हम थामे रहे कसकर 
बाँहों में अपना साथ 
जंगल के ओर छोर तक 
हम न छूटे 
अंधड़ और तपन में 
इस जंगल में हमने साथ निभाया।
हमने क्या खोया क्या पाया?

१७ अप्रैल २ ० ० २ 
शैलेन्द्र तिवारी 


Thursday, March 28, 2013

प्रेम





१ 
पेड़ पर लिपट 
एक हो गई 
अमरबेल 
अपनी जड़ें भूल जाती है,
बूँदें ओस की 
सागर में बिखर 
खो जाती हैं जाने कहाँ।
पौ फटते ही 
जाने कहाँ से 
निकल आता है सूरज और 
अपनी प्रेमिका रात्रि को 
लील जाता है।
कितना अजीब है प्रेम ,
प्रेम करना और 
महसूस करना कि 
हम चुपके से किसी 
अत्याचार में शामिल होने की 
तैयारी तो नहीं कर रहे।
२ 
तुम्हारे भीतर तक
 पैठ जाता है - प्रेम 
पागल बना डालता है।
बुद्धि की सारी संभावनाओं 
को ध्वस्त करता 
बह निकलता है 
ह्रदय की चट्टानों को तोड़ता।
क्या यही प्रेम है?
या फिर 
नीरस सूखी नदी के 
किनारे ठूंठ जैसा उदास खड़ा 
कुछ तौलता हुआ 
नाप तौल के गर्म हवा से कुछ बोलता हुआ 
और 
आँखों से होशियारी से आँखें मिलाता 
प्रेम का चेहरा लगाये खड़ा 
 वो शातिर व्यापारी ही प्रेम है 
जो प्रेम का इस्तेमाल तो जानता है 
पर प्रेम करना नहीं जानता।
३ 
कुछ समझ नहीं
 आता 
तुम इस गोरख धंधे में 
पड़ना मत 
बस महसूस करना 
मेरा खोया हुआ ताप 
मेरी टूटी हुई जकड़न 
और मेरा वजूद 
जो अब पिघल कर 
मोम सा बह गया है 
और 
अब वापस नहीं लौटेगा 
चाहे तुम 
प्रेम की कोई भी परिभाषा रचो।


- ३ जुलाई २ ० १ ० 

शैलेन्द्र तिवारी 

Wednesday, March 27, 2013

मां






पीपल के पत्तों के
खड़खड़ाने से 
एहसास होता है अगणित पातों से 
टुकुर टुकुर ताक रही हो 
तुम मां 

तुम्हारी हंसी ही तो है 
नन्हे शिशु के 
रक्ताभ होंठों पर 
और खनकती है 
कानों में मेरे जहाँ जाता हूँ 

तुम कहाँ ओझल हुई 
मेरी आँखों से 
अब भी जब कोई छोटा सा तारा 
चाँद के किनारे पर दीख जाता है 
याद आता है बचपन 
तुम्हारी चांदनी के साये ही में 
मैंने चलना सीखा मां 
रातों के डरावने जंगल में 

तुम्हारे होने का एहसास 
बना रहता है मां 
और मुझे कभी हारने नहीं देता 
तुम्हारी पौरुष से भरी आँखें
 ही तो हैं 
सजी हैं मेरे माथे पर
और हरदम बेहिचक 
किसी भी कठिन समय का 
सामना करने को तैयार रखती है 

मौसम बदलते हैं 
पतझड़ से सावन 
सर्द रातों से लू भरी दोपहर तक
तुम्हारी प्रार्थनाओं की बुदबुदाहट 
मुझे सुरक्षित रखती है 
मैंने तुम्हें खोया नहीं मां 
मैंने पाया है तुम्हें 
तुम्हारे ही अनंत रूपों में 
अनंत आकाश की 
अनंत गहराइयों में   

चकित हूँ मैं 
रोशनी का समुद्र है 
मां 
तुम्हारे तेजोमय रूप की चकाचौंध में 
मेरी आँखें नहीं खुल रही हैं 
और मैं तुम्हें प्रणाम करने को 
किसी ओर शीश भी नहीं झुका सकता 
नमन है तुम्हें मां 
आत्मा की अनंत गहराइयों से 
दिशाओं के दशोद्वारों  के पार तक।



शैलेन्द्र तिवारी 

Tuesday, March 26, 2013

गुलमोहर








गुलमोहर
तुम्हारे छरहरे तने
और तुम्हारी फैली हुई बाहों के साथ साथ
 मैंने सीखा प्रेम करना,
झूमना हवा के झोंकों जैसा
लिपट जाना! शरमाते हुए
तुम्हारा सुर्ख फूलों में
बदल जाना, भीगना बारिश में
और मेरे ह्रदय को भिगाना भी
मैंने देखा है।

मैंने तुम्हारी डाल पर बनाया घोंसला
और तुम्हारी पत्तियों की छांव में
जाना मैंने दुलराना ...................
तुम्हारे साथ जाने कब बीत गए दिन रात माह बरस
साथ तुम्हारे कब रीत गई उम्र की गागर
समेट अपने डैने मैं भी बीतता हूँ
किन्तु अब भी भोर की पहली किरण
 में वही ताप है जिसे जिया है साथ हमने

गुलमोहर तुम गुलमोहर हो
अब भी मेरे ह्रदय में
तुम हरहराते हो निरंतर सांस बनकर
अब भी धडकते हो मेरे भीतर

-- ३ जुलाई २० ० ७

शैलेन्द्र तिवारी 




Sunday, March 24, 2013

मेरे अयन




















तुमने ही बनाये
यह पेड़, पहाड़ और ये नदियाँ।
तुम्हीं ने भर दी इस बाग में
इतनी सारी रंग बिरंगी तितलियाँ।
तुमने ही बसा दी है, यहाँ
मीठे बोल बोलने वाली ढेर सारी चिड़ियाँ।
और फिर चुपके से तुम
छुप गए अपनी मां के आँचल में।
मैं ढूँढता रहा तुम्हें
पास में दूर में
भीतर बाहर
पर ढूंढ नहीं पाया।
एकाएक कुछ हुआ
एक बिजली सी कौंधी
और लगा तुम मुझ से
बात करते हुए मेरे
ह्रदय में आ बसे हो।
फिर दूसरे ही पल लगा
तुम अपना सुन्दर अयन लिए हुए
मां की गोदी से निकलकर
मेरी बाँहों में आ गए हो
टुकुर टुकुर ताकते
कहते हो मुझे दिखाओ
मेरे पहाड़ मेरी नदियाँ
मेरे पेड़ मेरी तितलियाँ
मेरे फूल पत्तियां
मेरी चिड़ियाँ
फिर तीसरे पल
तुम्हें तुम्हारी चीज़ों को
दिखाते दिखाते लगा मैं ही नहीं था वहां
वहां थे तुम
तुम्हारी ढेर सारी रंगीन तितलियाँ
नदियाँ पेड़ पत्तियां
फूल  और मीठे बोल
बोलती चहकती अनेकों चिड़ियां।


शैलेन्द्र तिवारी 


Sunday, March 17, 2013

तुम भी, मैं भी


कौन सी बारिश खींच लाई है तुम्हें
इन पहाड़ों के बीच
जहाँ तलहटी की गरमी का एहसास तक बाकी नहीं
किस मोड़ के लिए बेचैन हैं सारी गलियाँ
इस शहर के टेढ़े मेढ़े रास्तों में क्या बंद है
जो खुशबू सा बिखर जायेगा
तुम्हारे आने से

एक एक लम्हा गुज़रता है
तुम्हारे होने की  आहट को
धीरे धीरे मुझसे दूर करता जाता है
बादल है बारिश है 
फूलों की सुगंध भरी नमी है
फिर भी तपिश दूर नहीं जाती

किसी प्राचीन समय का बचा हुआ कतरा
इसी बारिश में घूमता घूमता
आकर तुमसे लिपट जाता है
जाग जाते हैं सारे देवता -बुद्ध -अवलोकेतेश्वर
झरने लगता है आशीष का झरना
प्रकाश से भर जाता है
पूरा का पूरा अस्तित्व
और
छितरा कर एक किरण
मेरे भी माथे पर चमकती है

जानता हूँ मैं, सूर्य सा जीने के लिए
यह दूर होने का एहसास ही है
जिसे हम प्रकाश के
नज़दीक आने के लिए
हमेशा से खोज रहे हैं।
तुम भी
मैं भी।
                                                  -----    शैलेन्द्र तिवारी
                                         काठमांडू, ११अप्रैल २ ० १ २