Saturday, April 6, 2013

एक पल







१ 
शरमाकर चुप रह जाने वाली 
ऐसी कितनी बातें हैं 
जिनको हम तुम 
बोलें ना पर 
छू सकते हैं, फूलों की पंखुड़ियों जैसे।
ऐसी 
कितनी ही खुशबू हैं 
जिन्हें सहमकर 
आँख चुराकर 
हम साँसों में भर सकते हैं।
कितने प्यारे उड़नखटोले सपनों के हैं 
जहाँ बैठ हम उड़ सकते हैं 
ऊंचे ऊंचे आसमान में 
और 
प्यार में हँसते गाते 
खुले खुले मौसम के जैसे 
पल पल गीत सुना सकते हैं।
२ 
इतने तो अनजान नहीं हो 
कि 
तुम्हें पता भी ना हो 
कि जब मौसम बदलता है 
तो आदमी ही नहीं 
हवा 
पेड़ 
पौधों और पंखियों तक की 
आदतें बदल जाती हैं।
अमर बेल
किसी विशाल वृक्ष के
कन्धों तक चढ़कर 
अपनी पत्तियों में 
हज़ार हज़ार आँखें लिए 
टुकुर टुकुर ताकने लगती है।
चकवा नदी के किनारे 
किसी अनाम राग में 
ज़ोरों से चिल्लाता है।
हंसों के झुण्ड अपनी 
गर्दन शान में तिरछी 
किये झील के किनारे 
खड़े कोई राह तकते हैं।
जंगल में 
मोर नाचता है पर फैलाकर 
हवा बंसवटों को फूँक फूँक कर 
बंसी जैसा बजाती है।
फिर भी 
भला लगता है 
कि तुम इतनी अनजान बनो 
ताकि सारे अर्थ 
फिर से समझने / समझाने पड़ें 
और इस तरह हम 
समय को खोजें, फिर एक बार 
बच्चों की आँखों जैसे भोलेपन से।


3 फरवरी 1980 

शैलेन्द्र तिवारी 

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