Saturday, November 16, 2013

अनंत तक










वहाँ दूर तक 
रजनीगंधा के 
फूलों से पटी सफेद घाटियों में 
तुम 
खिलखिलाती हुई 
हवा सी 
लहराती रहती हो।

तुम्हारे खुले केशों से 
छन कर आती है 
सूरज की नन्ही 
सतरंगी किरणें 
और मेरी आँखों में 
विश्वास बनकर 
चमकने लगती हैं। 

मैं 
फैलता हूँ 
पृथ्वी को चारों ओर 
अपनी बाहों में लपेटे आकाश जैसा 
और 
एकाएक एक तेजस पुंज में 
बदल जाता हूँ 
तुम   
अपनी आत्मा तक 
सोख लेती हो 
तेज के कण कण 
और उसके बाद 
दिशाओं की अनंतता तक 
प्रकृति की दिव्य जीवन गंध सी 
व्याप्त हो जाती हो । 



8 फरवरी 1980,
भोपाल  

No comments:

Post a Comment