वहाँ दूर तक
रजनीगंधा के
फूलों से पटी सफेद घाटियों में
तुम
खिलखिलाती हुई
हवा सी
लहराती रहती हो।
तुम्हारे खुले केशों से
छन कर आती है
सूरज की नन्ही
सतरंगी किरणें
और मेरी आँखों में
विश्वास बनकर
चमकने लगती हैं।
मैं
फैलता हूँ
पृथ्वी को चारों ओर
अपनी बाहों में लपेटे आकाश जैसा
और
एकाएक एक तेजस पुंज में
बदल जाता हूँ
तुम
अपनी आत्मा तक
सोख लेती हो
तेज के कण कण
और उसके बाद
दिशाओं की अनंतता तक
प्रकृति की दिव्य जीवन गंध सी
व्याप्त हो जाती हो ।
8 फरवरी 1980,
भोपाल
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