Monday, April 15, 2013

अन्तश्चेतना





शब्द के परे निशब्द गूंजता है 
जैसे मेरे होने के पहले 
गर्भ में मां के 
मेरी आत्मा 
मेरे और मैं के बनने के 
बहुत पहले वो 
और उसका 
अनादि अखंड अनंत 
अछेद अभेद 
नाद गूंजता रहता है।

क्या है जो बजता है 
घंटियों के बीच से 
कौन है जो कौंध जाता है 
प्रकाश में और अंधकार के
घुप्प अँधेरे के भीतर से।

उसका एक छोर
मेरे प्राणों को छूता रहता है 
और दूसरा छोर सभी प्राणों को 
बांधे रखता है 
उसकी डोरी मज़बूत है 
कहीं कोई कमज़ोरी नहीं 
चाहे मैं छूट जाऊं 
किसी आकाश में 
चाहे मैं किसी राह पर 
भटक जाऊं इस अंतरिक्ष में 
चाहे मैं लोप हो जाऊं 
आँखों की पकड़ से।

वह मुझे बांधे रखता है 
खींच लाता है मुझे 
मेरे मैं की गहराइयों से भी 
उसका प्रेम ही तो है 
जकड़े हुए मेरा बदन और मेरी आत्मा 
उसकी पकड़ ढीली नहीं होती 
उसकी गर्मी में 
मेरा बदन और मैं दोनों पिघलते हैं 
बूँद बूँद पल पल।


- 15अप्रैल 2013 
     काठमांडू   

शैलेन्द्र तिवारी  

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