शब्द के परे निशब्द गूंजता है
जैसे मेरे होने के पहले
गर्भ में मां के
मेरी आत्मा
मेरे और मैं के बनने के
बहुत पहले वो
और उसका
अनादि अखंड अनंत
अछेद अभेद
नाद गूंजता रहता है।
क्या है जो बजता है
घंटियों के बीच से
कौन है जो कौंध जाता है
प्रकाश में और अंधकार के
घुप्प अँधेरे के भीतर से।
उसका एक छोर
मेरे प्राणों को छूता रहता है
और दूसरा छोर सभी प्राणों को
बांधे रखता है
उसकी डोरी मज़बूत है
कहीं कोई कमज़ोरी नहीं
चाहे मैं छूट जाऊं
किसी आकाश में
चाहे मैं किसी राह पर
भटक जाऊं इस अंतरिक्ष में
चाहे मैं लोप हो जाऊं
आँखों की पकड़ से।
वह मुझे बांधे रखता है
खींच लाता है मुझे
मेरे मैं की गहराइयों से भी
उसका प्रेम ही तो है
जकड़े हुए मेरा बदन और मेरी आत्मा
उसकी पकड़ ढीली नहीं होती
उसकी गर्मी में
मेरा बदन और मैं दोनों पिघलते हैं
बूँद बूँद पल पल।
- 15अप्रैल 2013
काठमांडू
शैलेन्द्र तिवारी
खिड़की के पार है -
गुलमोहर
और
उसके नीचे मुस्कुराती खड़ी हो तुम
तुम्हारा हाथ थामे खड़ी है
गुलाबी गालों वाली हमारी नन्ही सी गुलथुल बिटिया
खिड़की के पार है -
गुज़रता हुआ साल
अपने लम्बे हाथ पैंट की जेबों में डाले
सहमा सा वापस जा रहा है!
बाहर आसमान में -
पर फैलाये घूम रहा है रोशनी का एक झुण्ड!
मैं
दरवाज़ा खोलता हूँ,
शोर के बीच से बाहर निकलकर
तुम्हारे गुलाबी लिबास और बिटिया की नीली फ्रॉक
के बीच तक चला आता हूँ
और
हरियाला रास्ता हमारे पावों के नीचे से निकलकर
दूर बगीचे के छोर की तरफ आगे को
चल पड़ता है।
-15अप्रैल 1981
शैलेन्द्र तिवारी
१
शरमाकर चुप रह जाने वाली
ऐसी कितनी बातें हैं
जिनको हम तुम
बोलें ना पर
छू सकते हैं, फूलों की पंखुड़ियों जैसे।
ऐसी
कितनी ही खुशबू हैं
जिन्हें सहमकर
आँख चुराकर
हम साँसों में भर सकते हैं।
कितने प्यारे उड़नखटोले सपनों के हैं
जहाँ बैठ हम उड़ सकते हैं
ऊंचे ऊंचे आसमान में
और
प्यार में हँसते गाते
खुले खुले मौसम के जैसे
पल पल गीत सुना सकते हैं।
२
इतने तो अनजान नहीं हो
कि
तुम्हें पता भी ना हो
कि जब मौसम बदलता है
तो आदमी ही नहीं
हवा
पेड़
पौधों और पंखियों तक की
आदतें बदल जाती हैं।
अमर बेल
किसी विशाल वृक्ष के
कन्धों तक चढ़कर
अपनी पत्तियों में
हज़ार हज़ार आँखें लिए
टुकुर टुकुर ताकने लगती है।
चकवा नदी के किनारे
किसी अनाम राग में
ज़ोरों से चिल्लाता है।
हंसों के झुण्ड अपनी
गर्दन शान में तिरछी
किये झील के किनारे
खड़े कोई राह तकते हैं।
जंगल में
मोर नाचता है पर फैलाकर
हवा बंसवटों को फूँक फूँक कर
बंसी जैसा बजाती है।
फिर भी
भला लगता है
कि तुम इतनी अनजान बनो
ताकि सारे अर्थ
फिर से समझने / समझाने पड़ें
और इस तरह हम
समय को खोजें, फिर एक बार
बच्चों की आँखों जैसे भोलेपन से।
3 फरवरी 1980
शैलेन्द्र तिवारी
आप के इंतज़ार की
एक छोटी सी उदासी
मेरी आँखों में चमकने लगती है।
धुंधला जाते हैं
आसमान
मौसम
और सामने वाली खूबसूरत चीज़ें,
किसी गहराई से
एक वीरान राग सा
बजता है
जिसकी दिशा का
मैं
कोई आभास नहीं पाता।
केवल शब्दहीन स्मृतियाँ
तुम्हारी गंध का
साथ देती रहीं,
उस
अजनबी रात में
वहाँ
देर तक बरसात होती रही
हालाँकि
मौसम बाहर सूखा था
और
इस तरह का एक
अंधड़ झेलने के बाद
मैंने जाना कि
साथ निभाना मुश्किल काम है।
2 फरवरी 1980
शैलेन्द्र तिवारी
१
रात भर लिपटी रही खुशबू
तुम्हारी चन्दन बाँहों की
और मेरा सीना महकता रहा।
दिन भर रोशनी चुभती रही आँखों में
और मैं
तुम्हारे रेशमी बालों में सर गड़ाकर
सोने का बहाना ढूँढता रहा।
२
समुद्र के बाँध जैसा लहरों से
टकराता है बदन
इन लहरों ने मेरा रोम रोम डुबो लिया है
और अब तुम्हें भी डुबो लेना चाहती हैं।
पुरानी कमज़ोर दीवार सा
टूट गया है
अजनबीपन का पुल।
यह अमृतजल एक ठंडी ताज़गी से
अब हमें छूता है
हम अभी और डूबेंगे
इस समुद्र की नीली गहराई में
अपनी आत्माओं के गल जाने तक।
३
एक बियाबान था जो अचानक
बदल गया है
अब इसमें ढेर सारे परिचित कोने हैं,
धूप के नन्हे नन्हे टुकड़े हैं
जिन्हें गोदी में भरा जा सकता है।
खिलखिलाती हुई शाम है जिसको
बाहों में भरकर प्यार से दुलराया
जा सकता है
और
मीलों तक फैले खूबसूरत फूलों के
झुण्ड हैं
जिन्हें
जी भरकर
चूमा जा सकता है।
1 फरवरी 1980
शैलेन्द्र तिवारी
१
यह शहर है
अनजान ख़ामोशी का
यहाँ आँख नम
न किया करो!
बस हँसा करो
और दुआ करो
कि ये धूप हमसे
जुदा न हो!
२
न तो हम यहाँ
न तो तुम वहाँ
कभी ढूंढें किसी
उदास पल को
न भूलें अपनी गर्मियां
न छिपाएं अपनी उजास को!
३
बड़े जतन से
हमें खोजती
सर्द हवाएं
सुबह शाम
बड़े प्यार से
हमें ढूंढते
कई दोस्त
जो हैं गुमनाम!
४
हमें अपनी तरह से
मुस्कुरा के बुलाते हैं
ये कांटे और ये फूल भी लेके हमारा नाम
हमारे पास तक चले आते हैं !
५
जो किसी पल हमारे दरमियाँ
यदि कोई दरार आ गिरे
यदि बहक के कोई कदम कभी
हमारे बीच लड़खड़ा पड़े
तुम संभलना
न सहमना
तुम्हारे पीछे ही खड़ा हूँ मैं
तुम्हारे हर कदम को सहेजता
चट्टान सा अड़ा हूँ मैं !
६
जो अँधेरे आएं कहीं कभी
तुम्हारे पास किसी परछाई के भी
उन्हें लेने न दूंगा कोई जगह
तुम्हारे साथ साथ चल रहा
तुम्हारे भीतर की रोशनी में घुला मैं
रोशनी का वजूद हूँ
हर पल यहींमौजूद हूँ !
७
यह शहर है
अनजान ख़ामोशी का
यहाँ आँख नम न किया करो।
4 अप्रैल 2013
काठमांडू
शैलेन्द्र तिवारी
--- उन थोड़े से फूलों के लिए
जिनकी महक
अभी
बाकी है--- हमारे बीच!
--- उस नन्ही बिटिया के लिए
जिसके सपनों में
किस्से कहानियों की तरह
ख़त्म हुए हम तुम
हर बार पुनर्जन्म लेते हैं!
--- उस गर्व के लिए जो,
हमारी अलग अलग अस्मिता
अपने दोनों हाथों में थामे
तनी हुई गर्दन के साथ
खड़ा रहता है-- हमारे बीच!
--- हमें लौटना ही होगा!
भीतर अंधेरों को पार कर
बहने वाले अमृतजल के
चिरस्थाई सोते के पास
जहाँ सारी विषमताएं
गल रही हैं, धीरे धीरे।
3 जुलाई 1985
शैलेन्द्र तिवारी