Sunday, March 31, 2013

मेरा मैं तेरा तू



यह मेरा मैं ही तो है 
जो मुझे तेरे तू से अलग करता है 
वरना 
आँख मेरी भी देखती है 
कान मेरे भी सुनते हैं 
और त्वचा 
वह तो तुम जानते हो तुम्हें भी गुदगुदी होती है 
फिर क्यों बार बार 
हमारे बीच मैं और तुम आकर 
खड़े हो जाते हैं सिपहसालारों की भांति 
और हमें अपने अपने कटघरों में 
कैद कर देते हैं।
फिर क्यों बार बार 
मुझे और तुम्हें रूठना पड़ता है 
मनाने के इंतज़ार में कसकना पड़ता है 
फिर क्यों मेरी त्वचा चीत्कार करती है 
तुम्हारी त्वचा के लिए 
फिर क्यों मेरी साँसें तुम्हारी नासिका से 
गुज़रने को बेताब हवा जैसी 
बहकती रहती है 
फिर क्यों मेरा दिल धड़कता है 
मेरे सीने में तुम्हारी छातियों के बाहर?

यह मेरा मैं ही तो है 
जिसकी माटी से मैं बना हूँ 
और पल पल गलने का प्रयत्न करता है 
बूँद बूँद रिसने का इंतज़ार करता है 
घड़े के व्योम में 
समा जाने तक।




15 जनवरी 2013
शैलेन्द्र तिवारी 

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