तुम्हारे कमरे तक
दौड़ जाते हैं
मेरे सपने
इनके
क़दमों की आहट
कोई नहीं सुन पाता
शायद तुम भी नहीं।
बाहर की
तेज़ रोशनी में
आँख गड़ाने के बाद भी
कोई इन्हें देख नहीं पाता
और
चुपके से ये तुम्हारे
बहुत करीब पहुँच कर
तुम्हें ताकने लगते हैं।
इन सपनों ने देखा है
छुपकर
तुम्हारा सारी रात
बड़ी बड़ी आँखें लिए जागना
कमरे की दीवारों को
घूरते हुए किसी अनजान बात पर
खिलखिला कर हँस पड़ना
और फिर
शरमाकर तकिये में मुंह गड़ाकर सो जाना।
मैंने कह दिया है सपनों को
अब वे इस तरह आवारा घूमते हुए
तुम्हारे पास तक नहीं जायेंगे
और यहीं
मेरे साथ तुम्हारे सपनों की बाहों में
लिपटकर चुपचाप सो रहेंगे।
शैलेन्द्र तिवारी
6 फरवरी 1980
भोपाल
दौड़ जाते हैं
मेरे सपने
इनके
क़दमों की आहट
कोई नहीं सुन पाता
शायद तुम भी नहीं।
बाहर की
तेज़ रोशनी में
आँख गड़ाने के बाद भी
कोई इन्हें देख नहीं पाता
और
चुपके से ये तुम्हारे
बहुत करीब पहुँच कर
तुम्हें ताकने लगते हैं।
इन सपनों ने देखा है
छुपकर
तुम्हारा सारी रात
बड़ी बड़ी आँखें लिए जागना
कमरे की दीवारों को
घूरते हुए किसी अनजान बात पर
खिलखिला कर हँस पड़ना
और फिर
शरमाकर तकिये में मुंह गड़ाकर सो जाना।
मैंने कह दिया है सपनों को
अब वे इस तरह आवारा घूमते हुए
तुम्हारे पास तक नहीं जायेंगे
और यहीं
मेरे साथ तुम्हारे सपनों की बाहों में
लिपटकर चुपचाप सो रहेंगे।
शैलेन्द्र तिवारी
6 फरवरी 1980
भोपाल
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