Sunday, March 31, 2013

मेरा मैं तेरा तू



यह मेरा मैं ही तो है 
जो मुझे तेरे तू से अलग करता है 
वरना 
आँख मेरी भी देखती है 
कान मेरे भी सुनते हैं 
और त्वचा 
वह तो तुम जानते हो तुम्हें भी गुदगुदी होती है 
फिर क्यों बार बार 
हमारे बीच मैं और तुम आकर 
खड़े हो जाते हैं सिपहसालारों की भांति 
और हमें अपने अपने कटघरों में 
कैद कर देते हैं।
फिर क्यों बार बार 
मुझे और तुम्हें रूठना पड़ता है 
मनाने के इंतज़ार में कसकना पड़ता है 
फिर क्यों मेरी त्वचा चीत्कार करती है 
तुम्हारी त्वचा के लिए 
फिर क्यों मेरी साँसें तुम्हारी नासिका से 
गुज़रने को बेताब हवा जैसी 
बहकती रहती है 
फिर क्यों मेरा दिल धड़कता है 
मेरे सीने में तुम्हारी छातियों के बाहर?

यह मेरा मैं ही तो है 
जिसकी माटी से मैं बना हूँ 
और पल पल गलने का प्रयत्न करता है 
बूँद बूँद रिसने का इंतज़ार करता है 
घड़े के व्योम में 
समा जाने तक।




15 जनवरी 2013
शैलेन्द्र तिवारी 

Friday, March 29, 2013

मैं तुम्हें ये सब देता हूँ


       


मैं ये सब तुम्हें देता हूँ --
ये फूलों वाले रूमाल 
ये खूबसूरत रंगों वाले 
ढेर सारे गुलाब 
और मेरी अलमारी भर किताबें।

मेरी मोटे शीशों वाली ऐनक 
मेरी आँखों की उदास झील 
मेरा सख्त चेहरा 
मेरा हवाओं जैसा बेचैन 
दौड़ने वाला दिल 
मेरा परेशान दिमाग 
और मेरी आसपास तक फैली 
बाहें भी मैं तुम्हें देता हूँ।

धरती को इस छोर से उस छोर 
तक नाप सकने वाली मेरी 
मज़बूत टांगें 
दूर तक दिखाई देने वाला 
मेरे अजनबीपन का जंगल 
मेरे अकेले कमरे की 
खिड़की के नीचे वाली 
रजनीगंधा की छोटी सी क्यारी 
डायरी भर मेरी अधूरी कवितायेँ 
मेरे पुराने कोट की 
मर्दानी गंध और मेरी 
ऊलजलूल रंगों वाली 
पेंटिंग्स।

ये सब भी मैं तुम्हें देता हूँ 
और बदले में 
तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही 
मैं तुम्हारा हाथ चूम लूँगा 
क्योंकि 
तुम्हारे हरदम चुप रहने के बावजूद भी 
मैं जानता हूँ कि तुम मुझे 
प्यार करती हो।


-- १५ फरवरी १९८० 

शैलेन्द्र तिवारी  

क्या खोया क्या पाया



हमने खोजे 
इस जंगल में 
फूल और 
पत्तों के गहने 
डाली डाली 
खोजी कोयल।
सूरज आग और
धरती को
खूब रिझाया 
बर्फीली चोटी 
से लेकर 
सागर की गहराई तक 
हम दौड़े आये।
सपनों के संग 
उड़ते उड़ते 
थके नहीं हम 
और न टूटे,
ऋतु के पंखों को 
आगे पीछे देखा हमने।
हम थामे रहे कसकर 
बाँहों में अपना साथ 
जंगल के ओर छोर तक 
हम न छूटे 
अंधड़ और तपन में 
इस जंगल में हमने साथ निभाया।
हमने क्या खोया क्या पाया?

१७ अप्रैल २ ० ० २ 
शैलेन्द्र तिवारी 


Thursday, March 28, 2013

प्रेम





१ 
पेड़ पर लिपट 
एक हो गई 
अमरबेल 
अपनी जड़ें भूल जाती है,
बूँदें ओस की 
सागर में बिखर 
खो जाती हैं जाने कहाँ।
पौ फटते ही 
जाने कहाँ से 
निकल आता है सूरज और 
अपनी प्रेमिका रात्रि को 
लील जाता है।
कितना अजीब है प्रेम ,
प्रेम करना और 
महसूस करना कि 
हम चुपके से किसी 
अत्याचार में शामिल होने की 
तैयारी तो नहीं कर रहे।
२ 
तुम्हारे भीतर तक
 पैठ जाता है - प्रेम 
पागल बना डालता है।
बुद्धि की सारी संभावनाओं 
को ध्वस्त करता 
बह निकलता है 
ह्रदय की चट्टानों को तोड़ता।
क्या यही प्रेम है?
या फिर 
नीरस सूखी नदी के 
किनारे ठूंठ जैसा उदास खड़ा 
कुछ तौलता हुआ 
नाप तौल के गर्म हवा से कुछ बोलता हुआ 
और 
आँखों से होशियारी से आँखें मिलाता 
प्रेम का चेहरा लगाये खड़ा 
 वो शातिर व्यापारी ही प्रेम है 
जो प्रेम का इस्तेमाल तो जानता है 
पर प्रेम करना नहीं जानता।
३ 
कुछ समझ नहीं
 आता 
तुम इस गोरख धंधे में 
पड़ना मत 
बस महसूस करना 
मेरा खोया हुआ ताप 
मेरी टूटी हुई जकड़न 
और मेरा वजूद 
जो अब पिघल कर 
मोम सा बह गया है 
और 
अब वापस नहीं लौटेगा 
चाहे तुम 
प्रेम की कोई भी परिभाषा रचो।


- ३ जुलाई २ ० १ ० 

शैलेन्द्र तिवारी 

Wednesday, March 27, 2013

मां






पीपल के पत्तों के
खड़खड़ाने से 
एहसास होता है अगणित पातों से 
टुकुर टुकुर ताक रही हो 
तुम मां 

तुम्हारी हंसी ही तो है 
नन्हे शिशु के 
रक्ताभ होंठों पर 
और खनकती है 
कानों में मेरे जहाँ जाता हूँ 

तुम कहाँ ओझल हुई 
मेरी आँखों से 
अब भी जब कोई छोटा सा तारा 
चाँद के किनारे पर दीख जाता है 
याद आता है बचपन 
तुम्हारी चांदनी के साये ही में 
मैंने चलना सीखा मां 
रातों के डरावने जंगल में 

तुम्हारे होने का एहसास 
बना रहता है मां 
और मुझे कभी हारने नहीं देता 
तुम्हारी पौरुष से भरी आँखें
 ही तो हैं 
सजी हैं मेरे माथे पर
और हरदम बेहिचक 
किसी भी कठिन समय का 
सामना करने को तैयार रखती है 

मौसम बदलते हैं 
पतझड़ से सावन 
सर्द रातों से लू भरी दोपहर तक
तुम्हारी प्रार्थनाओं की बुदबुदाहट 
मुझे सुरक्षित रखती है 
मैंने तुम्हें खोया नहीं मां 
मैंने पाया है तुम्हें 
तुम्हारे ही अनंत रूपों में 
अनंत आकाश की 
अनंत गहराइयों में   

चकित हूँ मैं 
रोशनी का समुद्र है 
मां 
तुम्हारे तेजोमय रूप की चकाचौंध में 
मेरी आँखें नहीं खुल रही हैं 
और मैं तुम्हें प्रणाम करने को 
किसी ओर शीश भी नहीं झुका सकता 
नमन है तुम्हें मां 
आत्मा की अनंत गहराइयों से 
दिशाओं के दशोद्वारों  के पार तक।



शैलेन्द्र तिवारी 

Tuesday, March 26, 2013

गुलमोहर








गुलमोहर
तुम्हारे छरहरे तने
और तुम्हारी फैली हुई बाहों के साथ साथ
 मैंने सीखा प्रेम करना,
झूमना हवा के झोंकों जैसा
लिपट जाना! शरमाते हुए
तुम्हारा सुर्ख फूलों में
बदल जाना, भीगना बारिश में
और मेरे ह्रदय को भिगाना भी
मैंने देखा है।

मैंने तुम्हारी डाल पर बनाया घोंसला
और तुम्हारी पत्तियों की छांव में
जाना मैंने दुलराना ...................
तुम्हारे साथ जाने कब बीत गए दिन रात माह बरस
साथ तुम्हारे कब रीत गई उम्र की गागर
समेट अपने डैने मैं भी बीतता हूँ
किन्तु अब भी भोर की पहली किरण
 में वही ताप है जिसे जिया है साथ हमने

गुलमोहर तुम गुलमोहर हो
अब भी मेरे ह्रदय में
तुम हरहराते हो निरंतर सांस बनकर
अब भी धडकते हो मेरे भीतर

-- ३ जुलाई २० ० ७

शैलेन्द्र तिवारी 




Sunday, March 24, 2013

मेरे अयन




















तुमने ही बनाये
यह पेड़, पहाड़ और ये नदियाँ।
तुम्हीं ने भर दी इस बाग में
इतनी सारी रंग बिरंगी तितलियाँ।
तुमने ही बसा दी है, यहाँ
मीठे बोल बोलने वाली ढेर सारी चिड़ियाँ।
और फिर चुपके से तुम
छुप गए अपनी मां के आँचल में।
मैं ढूँढता रहा तुम्हें
पास में दूर में
भीतर बाहर
पर ढूंढ नहीं पाया।
एकाएक कुछ हुआ
एक बिजली सी कौंधी
और लगा तुम मुझ से
बात करते हुए मेरे
ह्रदय में आ बसे हो।
फिर दूसरे ही पल लगा
तुम अपना सुन्दर अयन लिए हुए
मां की गोदी से निकलकर
मेरी बाँहों में आ गए हो
टुकुर टुकुर ताकते
कहते हो मुझे दिखाओ
मेरे पहाड़ मेरी नदियाँ
मेरे पेड़ मेरी तितलियाँ
मेरे फूल पत्तियां
मेरी चिड़ियाँ
फिर तीसरे पल
तुम्हें तुम्हारी चीज़ों को
दिखाते दिखाते लगा मैं ही नहीं था वहां
वहां थे तुम
तुम्हारी ढेर सारी रंगीन तितलियाँ
नदियाँ पेड़ पत्तियां
फूल  और मीठे बोल
बोलती चहकती अनेकों चिड़ियां।


शैलेन्द्र तिवारी 


Sunday, March 17, 2013

तुम भी, मैं भी


कौन सी बारिश खींच लाई है तुम्हें
इन पहाड़ों के बीच
जहाँ तलहटी की गरमी का एहसास तक बाकी नहीं
किस मोड़ के लिए बेचैन हैं सारी गलियाँ
इस शहर के टेढ़े मेढ़े रास्तों में क्या बंद है
जो खुशबू सा बिखर जायेगा
तुम्हारे आने से

एक एक लम्हा गुज़रता है
तुम्हारे होने की  आहट को
धीरे धीरे मुझसे दूर करता जाता है
बादल है बारिश है 
फूलों की सुगंध भरी नमी है
फिर भी तपिश दूर नहीं जाती

किसी प्राचीन समय का बचा हुआ कतरा
इसी बारिश में घूमता घूमता
आकर तुमसे लिपट जाता है
जाग जाते हैं सारे देवता -बुद्ध -अवलोकेतेश्वर
झरने लगता है आशीष का झरना
प्रकाश से भर जाता है
पूरा का पूरा अस्तित्व
और
छितरा कर एक किरण
मेरे भी माथे पर चमकती है

जानता हूँ मैं, सूर्य सा जीने के लिए
यह दूर होने का एहसास ही है
जिसे हम प्रकाश के
नज़दीक आने के लिए
हमेशा से खोज रहे हैं।
तुम भी
मैं भी।
                                                  -----    शैलेन्द्र तिवारी
                                         काठमांडू, ११अप्रैल २ ० १ २