यह मेरा मैं ही तो है
जो मुझे तेरे तू से अलग करता है
वरना
आँख मेरी भी देखती है
कान मेरे भी सुनते हैं
और त्वचा
वह तो तुम जानते हो तुम्हें भी गुदगुदी होती है
फिर क्यों बार बार
हमारे बीच मैं और तुम आकर
खड़े हो जाते हैं सिपहसालारों की भांति
और हमें अपने अपने कटघरों में
कैद कर देते हैं।
फिर क्यों बार बार
मुझे और तुम्हें रूठना पड़ता है
मनाने के इंतज़ार में कसकना पड़ता है
फिर क्यों मेरी त्वचा चीत्कार करती है
तुम्हारी त्वचा के लिए
फिर क्यों मेरी साँसें तुम्हारी नासिका से
गुज़रने को बेताब हवा जैसी
बहकती रहती है
फिर क्यों मेरा दिल धड़कता है
मेरे सीने में तुम्हारी छातियों के बाहर?
यह मेरा मैं ही तो है
जिसकी माटी से मैं बना हूँ
और पल पल गलने का प्रयत्न करता है
बूँद बूँद रिसने का इंतज़ार करता है
घड़े के व्योम में
समा जाने तक।
15 जनवरी 2013
शैलेन्द्र तिवारी