गुलमोहर
तुम्हारे छरहरे तने
और तुम्हारी फैली हुई बाहों के साथ साथ
मैंने सीखा प्रेम करना,
झूमना हवा के झोंकों जैसा
लिपट जाना! शरमाते हुए
तुम्हारा सुर्ख फूलों में
बदल जाना, भीगना बारिश में
और मेरे ह्रदय को भिगाना भी
मैंने देखा है।
मैंने तुम्हारी डाल पर बनाया घोंसला
और तुम्हारी पत्तियों की छांव में
जाना मैंने दुलराना ...................
तुम्हारे साथ जाने कब बीत गए दिन रात माह बरस
साथ तुम्हारे कब रीत गई उम्र की गागर
समेट अपने डैने मैं भी बीतता हूँ
किन्तु अब भी भोर की पहली किरण
में वही ताप है जिसे जिया है साथ हमने
गुलमोहर तुम गुलमोहर हो
अब भी मेरे ह्रदय में
तुम हरहराते हो निरंतर सांस बनकर
अब भी धडकते हो मेरे भीतर
-- ३ जुलाई २० ० ७
शैलेन्द्र तिवारी
very nice poem.
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