Thursday, March 28, 2013

प्रेम





१ 
पेड़ पर लिपट 
एक हो गई 
अमरबेल 
अपनी जड़ें भूल जाती है,
बूँदें ओस की 
सागर में बिखर 
खो जाती हैं जाने कहाँ।
पौ फटते ही 
जाने कहाँ से 
निकल आता है सूरज और 
अपनी प्रेमिका रात्रि को 
लील जाता है।
कितना अजीब है प्रेम ,
प्रेम करना और 
महसूस करना कि 
हम चुपके से किसी 
अत्याचार में शामिल होने की 
तैयारी तो नहीं कर रहे।
२ 
तुम्हारे भीतर तक
 पैठ जाता है - प्रेम 
पागल बना डालता है।
बुद्धि की सारी संभावनाओं 
को ध्वस्त करता 
बह निकलता है 
ह्रदय की चट्टानों को तोड़ता।
क्या यही प्रेम है?
या फिर 
नीरस सूखी नदी के 
किनारे ठूंठ जैसा उदास खड़ा 
कुछ तौलता हुआ 
नाप तौल के गर्म हवा से कुछ बोलता हुआ 
और 
आँखों से होशियारी से आँखें मिलाता 
प्रेम का चेहरा लगाये खड़ा 
 वो शातिर व्यापारी ही प्रेम है 
जो प्रेम का इस्तेमाल तो जानता है 
पर प्रेम करना नहीं जानता।
३ 
कुछ समझ नहीं
 आता 
तुम इस गोरख धंधे में 
पड़ना मत 
बस महसूस करना 
मेरा खोया हुआ ताप 
मेरी टूटी हुई जकड़न 
और मेरा वजूद 
जो अब पिघल कर 
मोम सा बह गया है 
और 
अब वापस नहीं लौटेगा 
चाहे तुम 
प्रेम की कोई भी परिभाषा रचो।


- ३ जुलाई २ ० १ ० 

शैलेन्द्र तिवारी 

1 comment:

  1. True. No words can translate the magic of love. Beautiful poem and excellent picture selection.

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