Sunday, March 17, 2013

तुम भी, मैं भी


कौन सी बारिश खींच लाई है तुम्हें
इन पहाड़ों के बीच
जहाँ तलहटी की गरमी का एहसास तक बाकी नहीं
किस मोड़ के लिए बेचैन हैं सारी गलियाँ
इस शहर के टेढ़े मेढ़े रास्तों में क्या बंद है
जो खुशबू सा बिखर जायेगा
तुम्हारे आने से

एक एक लम्हा गुज़रता है
तुम्हारे होने की  आहट को
धीरे धीरे मुझसे दूर करता जाता है
बादल है बारिश है 
फूलों की सुगंध भरी नमी है
फिर भी तपिश दूर नहीं जाती

किसी प्राचीन समय का बचा हुआ कतरा
इसी बारिश में घूमता घूमता
आकर तुमसे लिपट जाता है
जाग जाते हैं सारे देवता -बुद्ध -अवलोकेतेश्वर
झरने लगता है आशीष का झरना
प्रकाश से भर जाता है
पूरा का पूरा अस्तित्व
और
छितरा कर एक किरण
मेरे भी माथे पर चमकती है

जानता हूँ मैं, सूर्य सा जीने के लिए
यह दूर होने का एहसास ही है
जिसे हम प्रकाश के
नज़दीक आने के लिए
हमेशा से खोज रहे हैं।
तुम भी
मैं भी।
                                                  -----    शैलेन्द्र तिवारी
                                         काठमांडू, ११अप्रैल २ ० १ २



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