METAMORPHOSIS
The Reflection of the Self
Tuesday, November 19, 2013
सोन चिरैया
एक राजकुमारी थी
जिसके घर
तोतों के झुण्ड
पहरा देते थे।
जिसके महल में
सोन चिरैया
मोती चुगने आती थी।
एक महल था
जिसमें एक झील थी
और
झील के किनारे
हिरणों के झुण्ड थे
जिनसे राजकुमारी
खेला करती थी।
एक दिन
एक बंजारा आया
और तोतों के झुण्ड
के बीच से
राजकुमारी को
अपनी मज़बूत बाँहों में
उठाकर ले गया।
बंजारे के साथ
हवा में उड़ती उड़ती
राजकुमारी दूर ऊँचे पहाड़
पर जमी बर्फीली चट्टान
तक पहुँच गयी।
उस अजनबी बंजारे ने
राजकुमारी को सफ़ेद बर्फ पर
लिटाकर खूब चूमा
और जादू से
उसकी आँखें बदल दीं।
अब वह
नीली आँखों वाली एक
बंजारन है
और बंजारे के साथ साथ
जंगल जंगल
पर्वत पर्वत घूमा करती है।
उनके पास कुछ भी नहीं है
बस ढेर सारा प्यार है
जिसमें धरती और आसमान
डूबे रहते हैं।
वे लोग
साथ साथ सोते गाते
और उड़ते रहते हैं
हवा में
कभी यहाँ कभी वहाँ।
और पहरेदार तोते
उनका कुछ भी
बिगाड़ नहीं पाते।
वहाँ की हवा से
कभी कभी उनका
झगड़ा होता है
और वे साथ साथ
अंधड़ को पीछे ढकेल देते हैं।
सोन चिरैया
अब भी जंगल में
उनके पास आती है
अब वह मोती नहीं
दाने चुनती है
जिससे उसका पेट नहीं
आत्मा तक भर जाती है।
एक जंगल है चन्दन का
जिसमें रहती है राजकुमारी अब
बंजारन रानी बनकर
वहाँ के खुशबूदार ज़िंदा पौधों
के साथ
और
महल के भीतर की
सारी उदास चीज़ों को
भूल चुकी है।
14 फरवरी 1980,
भोपाल
नदी
मुझे मत रोको
इस नदी के अंत तक जाना है मुझे
मुझे इसका साथ देना है
दुर्गम घाटियों में , ठहरे हुए समतल पर ,
बहते हुए झरनों में।
इसकी धारा का हर कण
इसके ठंडे जल का सुखद स्पर्श ,
इसका वेग , सब कुछ
आत्मसात करना है।
मुझे प्यार है इस नदी से
इसके साथ डूबने उतराने में
मैं पुलकित होता हूँ
नदी एक जीवन है
जिसे मैं तुम्हारा नाम देता हूँ
और जिसमें मेरा नाम
घुलता जा रहा है।
2 नवंबर 1980 ,
भोपाल
Saturday, November 16, 2013
माया नगरी
हो सकता है
मिट्टी में ही
छुपी हो खुशबू
सारे फूलों की
ऐसा भी हो सकता है
कि आकाश ही
अपने दुशाले में बाँध
जीवन के सारे टुकड़े
हमारे भीतर आकर
फैल गया हो
संभव है
कि समुद्र ही उफनता हो
ज्वार भाटे सा हमारे भीतर
और बाहर
अपनी निस्सीम अनंतता
समेटे चुपचाप खड़ा हो
या फिर
कुहराए प्रकाश कण ही
बना रहे हों यह अंधियारा
इस माया नगरी में
सब कुछ सम्भव है
असम्भव कुछ भी नहीं
हो सकता है
प्रेम भी सदियों पुरानी
किसी पथराली चट्टान पर
खुदा कोई नाम भर हो
जिसकी लिपि अभी खोजी
जानी है।
3 जुलाई 2000,
भोपाल
अनंत तक
वहाँ दूर तक
रजनीगंधा के
फूलों से पटी सफेद घाटियों में
तुम
खिलखिलाती हुई
हवा सी
लहराती रहती हो।
तुम्हारे खुले केशों से
छन कर आती है
सूरज की नन्ही
सतरंगी किरणें
और मेरी आँखों में
विश्वास बनकर
चमकने लगती हैं।
मैं
फैलता हूँ
पृथ्वी को चारों ओर
अपनी बाहों में लपेटे आकाश जैसा
और
एकाएक एक तेजस पुंज में
बदल जाता हूँ
तुम
अपनी आत्मा तक
सोख लेती हो
तेज के कण कण
और उसके बाद
दिशाओं की अनंतता तक
प्रकृति की दिव्य जीवन गंध सी
व्याप्त हो जाती हो ।
8 फरवरी 1980,
भोपाल
मेरे सपने
तुम्हारे कमरे तक
दौड़ जाते हैं
मेरे सपने
इनके
क़दमों की आहट
कोई नहीं सुन पाता
शायद तुम भी नहीं।
बाहर की
तेज़ रोशनी में
आँख गड़ाने के बाद भी
कोई इन्हें देख नहीं पाता
और
चुपके से ये तुम्हारे
बहुत करीब पहुँच कर
तुम्हें ताकने लगते हैं।
इन सपनों ने देखा है
छुपकर
तुम्हारा सारी रात
बड़ी बड़ी आँखें लिए जागना
कमरे की दीवारों को
घूरते हुए किसी अनजान बात पर
खिलखिला कर हँस पड़ना
और फिर
शरमाकर तकिये में मुंह गड़ाकर सो जाना।
मैंने कह दिया है सपनों को
अब वे इस तरह आवारा घूमते हुए
तुम्हारे पास तक नहीं जायेंगे
और यहीं
मेरे साथ तुम्हारे सपनों की बाहों में
लिपटकर चुपचाप सो रहेंगे।
शैलेन्द्र तिवारी
6 फरवरी 1980
भोपाल
दौड़ जाते हैं
मेरे सपने
इनके
क़दमों की आहट
कोई नहीं सुन पाता
शायद तुम भी नहीं।
बाहर की
तेज़ रोशनी में
आँख गड़ाने के बाद भी
कोई इन्हें देख नहीं पाता
और
चुपके से ये तुम्हारे
बहुत करीब पहुँच कर
तुम्हें ताकने लगते हैं।
इन सपनों ने देखा है
छुपकर
तुम्हारा सारी रात
बड़ी बड़ी आँखें लिए जागना
कमरे की दीवारों को
घूरते हुए किसी अनजान बात पर
खिलखिला कर हँस पड़ना
और फिर
शरमाकर तकिये में मुंह गड़ाकर सो जाना।
मैंने कह दिया है सपनों को
अब वे इस तरह आवारा घूमते हुए
तुम्हारे पास तक नहीं जायेंगे
और यहीं
मेरे साथ तुम्हारे सपनों की बाहों में
लिपटकर चुपचाप सो रहेंगे।
शैलेन्द्र तिवारी
6 फरवरी 1980
भोपाल
Tuesday, May 28, 2013
पहला पंछी
क्या देखी है तुमने कभी
सूखे के दिनों में
घोंसले तक बच्चों के लिए दाना लेकर
पहुँचती एक प्रसन्न चिड़िया ?
देखा है क्या
अनजान नदी के पार पड़े देवालय के
किसी अपूजित देवता को आशीष
देते हुए ?
क्या तुमने
किसी बारूदीअपशकुन को
फटते समय
ज़ोर से अट्टहास करते
सुना है ?
फिर किसलिए खोजते हो
आसमान में
होने और न होने का
बेकार सा मतलब।
क्यों बनते हो
बहस का हिस्सा
अपने ठन्डे हांथों को जेबों में डाले
प्रार्थनाओं की जुगाली से
पेट भर लेने के बाद भी
किस तरह खाली रह जाते हो?
बर्फ है बाहर
और समा गया है
शिराओं के भीतर तक
कौन सा डर
यह कैसा एहसास है
एक गहरे कुंए में डूब जाने जैसा
बेचैनी से आकंठ भरा हुआ?
क्यों करवट बदलता है
गर्भ के भीतर
यह एक असुरक्षित
क्षण
क्या इसी जगह
जन्म लेने वाला है
सूरज
क्या यहीं
पंख फड़फड़ायेगा
भोर को उड़ने वाला
पहला पंछी?
10 सितम्बर 2004
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